🇮🇳 भारत-अमेरिका व्यापार समझौता: 25% का तेल टैरिफ सबसे बड़ी बाधा, GTRI रिपोर्ट

नई दिल्ली, 16 सितंबर 2025 – GMI समाचार – भारत और अमेरिका, दुनिया की दो सबसे बड़ी लोकतांत्रिक शक्तियों के बीच चल रही व्यापार वार्ताओं में फिलहाल कोई बड़ा breakthrough संभव नहीं है। व्यापार पर केंद्रित थिंक-टैंक ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव (GTRI ) की एक विस्तृत रिपोर्ट ने इस सच्चाई को उजागर किया है। रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका द्वारा भारतीय उत्पादों पर लगाया गया 25% का अतिरिक्त टैरिफ ही इस समझौते की राह में सबसे बड़ी रुकावट बन गया है। जब तक अमेरिका इस टैरिफ को वापस नहीं लेता, तब तक किसी भी बड़े व्यापार समझौते की उम्मीद न के बराबर है।
यह टैरिफ अमेरिकी प्रशासन द्वारा अगस्त 2025 में एकतरफा रूप से लगाया गया था। इसका तात्कालिक कारण भारत द्वारा रूस से कच्चे तेल का आयात बढ़ाना था, जिसे अमेरिका ने “भू-राजनीतिक चुनौती” बताया। इस फैसले ने न केवल भारत-अमेरिका व्यापारिक रिश्तों में खटास पैदा की है, बल्कि इसका सीधा असर भारत के निर्यात पर भी पड़ रहा है और यह दोनों देशों के बीच भरोसे की नींव को कमजोर कर रहा है।
भारत-अमेरिका व्यापार संबंध: एक विस्तृत पृष्ठभूमि
भारत और अमेरिका के बीच व्यापार कोई नई बात नहीं है, बल्कि यह एक गतिशील और विकसित होता रिश्ता है। पिछले दो दशकों में द्विपक्षीय व्यापार लगातार बढ़ता रहा है, जो 2023-24 में लगभग 191 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर तक पहुँच चुका था। अमेरिका न केवल भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है, बल्कि भारत भी अमेरिकी बाज़ार के लिए एक बड़ी शक्ति बन चुका है। दोनों देशों के बीच का रिश्ता सिर्फ वस्तुओं के आदान-प्रदान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह प्रौद्योगिकी, फार्मा, कृषि उत्पाद, आईटी सेवाएं और रक्षा खरीद जैसे प्रमुख क्षेत्रों में गहरी निर्भरता पर टिका हुआ है।
लेकिन हर रिश्ते की तरह, इसमें भी विवाद रहे हैं। अमेरिका लंबे समय से भारत की टैरिफ नीतियों को “संरक्षणवादी” बताकर आलोचना करता रहा है, जबकि भारत संवेदनशील कृषि और डेयरी जैसे क्षेत्रों को अमेरिकी कंपनियों के लिए खोलने के दबाव का विरोध करता रहा है। ये मुद्दे पहले भी व्यापार वार्ताओं में बाधा डालते रहे हैं, लेकिन 25% का यह नया टैरिफ एक बिल्कुल नया और कहीं अधिक जटिल आयाम लेकर आया है, क्योंकि इसकी जड़ें सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक हैं।
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विवाद की भू-राजनीतिक जड़ें: रूस-यूक्रेन संघर्ष का साया
2025 की गर्मियों में अमेरिका द्वारा भारत पर लगाया गया यह 25% का अतिरिक्त टैरिफ एक बड़े भू-राजनीतिक परिदृश्य का हिस्सा है। रूस-यूक्रेन संघर्ष के बाद, अमेरिका और पश्चिमी देशों ने रूस पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए। इन प्रतिबंधों का एक मुख्य उद्देश्य रूस की अर्थव्यवस्था को कमजोर करना था, खासकर उसके ऊर्जा निर्यात को रोककर। ऐसे में, जब भारत ने अपनी ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए रूस से रियायती दरों पर कच्चा तेल खरीदना जारी रखा, तो अमेरिका ने इसे अपनी प्रतिबंध नीतियों का उल्लंघन माना।
अमेरिका चाहता था कि भारत, एक प्रमुख सहयोगी होने के नाते, उसकी भू-राजनीतिक स्थिति का समर्थन करे और रूस से दूरी बनाए। लेकिन भारत ने अपनी स्वतंत्र विदेश नीति को प्राथमिकता दी और यह स्पष्ट किया कि उसकी ऊर्जा आवश्यकताएं राष्ट्रीय हित के लिए सर्वोपरि हैं। भारत के इस रुख को अमेरिका ने एक “भू-राजनीतिक चुनौती” के रूप में देखा और इसी के जवाब में उसने आर्थिक हथियार का इस्तेमाल करते हुए यह 25% का टैरिफ लगा दिया। इस कदम ने यह साबित कर दिया कि अमेरिका अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए आर्थिक दबाव का उपयोग करने से नहीं हिचकेगा।
GTRI रिपोर्ट: एक विस्तृत विश्लेषण
GTRI की विस्तृत रिपोर्ट इस जटिल मुद्दे की परतें खोलती है। रिपोर्ट के निष्कर्ष केवल सतही नहीं हैं, बल्कि यह इस विवाद के गहरे निहितार्थों को दर्शाते हैं।
1. बिना टैरिफ हटाए समझौता असंभव: रिपोर्ट में सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि यह टैरिफ केवल एक व्यापारिक बाधा नहीं है, बल्कि यह भरोसे की दीवार है। जब तक यह टैरिफ लागू रहेगा, अमेरिका के इरादों पर सवाल बना रहेगा। भारत के वार्ताकार यह जानते हैं कि दबाव में बातचीत करना निरर्थक है, और इसलिए वे चाहते हैं कि अमेरिका पहले सद्भावना दिखाते हुए इस टैरिफ को वापस ले।
2. भारतीय अर्थव्यवस्था पर गहरा असर: रिपोर्ट ने बताया कि यह टैरिफ भारत के निर्यात को सीधे तौर पर प्रभावित कर रहा है।
कपड़ा और परिधान उद्योग: भारत के कपड़ा और परिधान उद्योग के लिए अमेरिका एक बड़ा बाजार है। 25% के अतिरिक्त शुल्क के साथ, कुल टैरिफ 50% तक पहुँच जाता है, जिससे भारतीय उत्पाद वियतनाम, बांग्लादेश और अन्य देशों के प्रतिस्पर्धियों के मुकाबले महंगे हो जाते हैं। इससे निर्यातकों को भारी नुकसान हो रहा है और इस क्षेत्र में रोजगार पर भी संकट मंडरा रहा है।
स्टील और एल्युमिनियम: ये उद्योग भारत के औद्योगिक विकास की रीढ़ हैं। अमेरिका में इन धातुओं के निर्यात पर शुल्क लगने से घरेलू उत्पादन प्रभावित हो रहा है और यह अन्य देशों के निर्यातकों को लाभ पहुंचा रहा है।
छोटे और मध्यम उद्यम (SMEs): जीटीआरआई की रिपोर्ट के अनुसार, सबसे ज्यादा नुकसान छोटे और मध्यम उद्यमों को हो रहा है, जिनके पास वैश्विक प्रतिस्पर्धा का सामना करने के लिए बड़े उद्यमों जैसी वित्तीय ताकत नहीं होती।
3. नियामकीय स्वायत्तता पर खतरा: रिपोर्ट ने भारत को आगाह किया है कि वह अमेरिका के दबाव में आकर जल्दबाजी में कृषि और डेयरी जैसे संवेदनशील क्षेत्रों को न खोले। यदि ऐसा होता है, तो अमेरिकी कृषि उत्पादों के लिए भारत का बाजार खुल जाएगा, जिससे देश के लाखों किसानों की आजीविका पर खतरा पैदा हो सकता है। यह कदम भारत की खाद्य सुरक्षा और आर्थिक संप्रभुता के लिए भी एक बड़ा जोखिम होगा।
भारत की बहु-आयामी रणनीति
अमेरिका के इस कदम के बावजूद, भारत एक संतुलित और बहु-आयामी रणनीति अपना रहा है।
- संवाद जारी रखना: भारत अमेरिका के साथ diplomatic channels को बंद नहीं कर रहा है। वह इस मुद्दे पर बातचीत करना चाहता है और एक स्वीकार्य समाधान तक पहुँचना चाहता है। भारत का यह रुख उसकी परिपक्व विदेश नीति को दर्शाता है।
- व्यापारिक साझेदारों का विविधीकरण: भारत अमेरिकी बाजार पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए अन्य देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौतों (FTAs) को तेजी से अंतिम रूप दे रहा है। यूरोपीय संघ, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ चल रही FTA वार्ताएँ इस रणनीति का हिस्सा हैं।
- घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहन: सरकार घरेलू कंपनियों को बढ़ावा देने और उन्हें अधिक प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए नई योजनाएं भी ला रही है। इसका उद्देश्य भारत को ‘आत्मनिर्भर’ बनाना और वैश्विक आर्थिक दबावों के प्रति लचीला बनाना है।
निष्कर्ष और भविष्य की संभावनाएँ
GTRI की रिपोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत-अमेरिका व्यापार समझौते की सफलता पूरी तरह से अमेरिकी प्रशासन पर निर्भर करती है। टैरिफ का मुद्दा केवल व्यापारिक नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक है, और इसका समाधान केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति से ही संभव है। यदि अमेरिका टैरिफ हटाता है, तो वार्ता में तेजी आएगी और नवंबर तक पहले चरण का समझौता हो सकता है, जिससे दोनों देशों के कई क्षेत्रों को लाभ होगा। लेकिन अगर टैरिफ बना रहा, तो वार्ता खिंचती रहेगी, भारत पर दबाव बढ़ेगा, और निर्यातकों की मुश्किलें भी बढ़ेंगी।
यह चुनौतीपूर्ण समय भारत के लिए अपनी स्वतंत्र विदेश नीति और आर्थिक हितों को संतुलित करने का एक बड़ा इम्तिहान है। आने वाले महीनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि दोनों देश इस जटिल स्थिति से निकलने के लिए कौन सा रास्ता अपनाते हैं, और क्या दोनों देशों के बीच की साझेदारी व्यापारिक बाधाओं से ऊपर उठ पाएगी।


